रूपान्तर और अतिमानस

 

रूपान्तर 

 

 

    एक परम दिव्य चेतना है । हम इस दिव्य चेतना को भौतिक जीवन में अभिव्यक्त करना चाहते हैं ।

    आशीर्वाद ।

 

*

 

    अपने-आपको भागवत चेतना में खो देना लक्ष्य नहीं है । लक्ष्य है भागवत चेतना को जड़ द्रव्य में प्रविष्ट होने देना और उसे रूपान्तरित करना ।

 

*

 

    भागवत चेतना तुम्हारा रूपान्तर करने के लिए काम कर रही है, उसे अपने अन्दर निर्बाध रूप से काम करने देने के लिए तुम्हें उसकी ओर खुलना चाहिये ।

१७ अक्तूबर १९३७

*

९२


    सभी चीजों में सबसे अधिक कठिन है भागवत चेतना को भौतिक जगत् में उतारना; क्या इसीलिए इस प्रयास को छोड़ देना चाहिये ? हर्गिज नहीं ।

२ जुलाई, १९५५

 

*

 

    तुम उस आध्यात्मिक स्थिति के हो जिसे जड़ द्रव्य को अस्वीकार करने की जरूरत पड़ती है ओर उससे बच निकलना चाहती है । आगामी कल की आध्यात्मिकता जड़ द्रव्य को लेकर उसे रूपान्तरित करेगी ।

३० जुलाई, १९६५

 

*

 

    सच्ची आध्यात्मिकता जीवन को रूपान्तरित करती है ।

 

**

 

   मानवीय तरीकों के छिछलेपन और अक्षमता के एक वर्ष के अनुभव के बाद समय आ गया है कि अब सच्चे लक्ष्य, रूपान्तर की ओर ले जाने वाली खड़ी चढ़ाई पर चढ़ना शुरू किया जाये ।

 

*

 

    रूपान्तर : सृष्टि का लक्ष्य ।

 

*

 

    नया जगत् : रूपान्तर का परिणाम ।

*

९३


तीन शर्तें

 

    एक ऐसा कार्य जिसका लक्ष्य है पार्थिव प्रगति, तब तक नहीं शुरू किया जा सकता जब तक उसे भगवान् की स्वीकृति और सहायता प्राप्त न हो ।

 

    वह तब तक नहीं टिक सकता जब तक ऐसी निरन्तर भौतिक वृद्धि न हो जो दिव्य प्रकृति की इच्छा को सन्तुष्ट करे ।

 

    उसे मानवीय दुर्भावना के सिवा कुछ भी समय से पहले नष्ट नहीं कर सकता । यह दुर्भावना ही भगवान् की विरोधी शक्तियों के यन्त्र का काम करती है जो भगवान् की अभिव्यक्ति और पृथ्वी के रूपान्तर में यथासम्भव देर लगाना चाहती हैं ।

 

*

 

    तुम्हें एक बात जान लेनी चाहिये और उसे कभी न भूलना चाहिये : रूपान्तर के कार्य में जो कुछ सत्य और निष्कपट है उसे हमेशा रखा जायेगा, जो कुछ मिथ्या और कपटपूर्ण है वह गायब हो जायेगा ।

 

*

 

    जैसे-जैसे रूपान्तर प्रगति करेगा वैसे-वैसे धुंधलापन अधिकाधिक गायब होता जायेगा ।

 

***

 

    तुममें से हर एक उन कठिनाइयों में से एक-एक का प्रतिनिधित्व करता है जिन्हें रूपान्तर के लिए पार करना होगा ।

 

*

 

    जब तक तुम्हारे अन्दर अनन्त धैर्य और अटल अध्यवसाय न हो तब तक रूपान्तर के पथ पर न चलना ही ज्यादा अच्छा है ।

*

९४


    हर एक दुःख रूपान्तर का रास्ता तैयार करे ।

३ जुलाई १९५४

 

*

 

    स्थिर-शान्त रहो और केवल काम के लिए ही नहीं, रूपान्तर सिद्ध करने के लिए भी बल और सामर्थ्य जुटाओ ।

२८ जुलाई, १९५५

 

*

 

    पूर्ण समग्र सन्तुलन : तुम रूपान्तर के लिए तैयार हो।

 

*

 

    रूपान्तर के लिए भगवान् को निरन्तर याद रखना अनिवार्य है ।

 

*

 

    बस, भगवान् के सच्चे आज्ञाकारी बने रहो-यह तुम्हें रूपान्तर के मार्ग पर दूर तक ले जायेगा ।

 

*

 

    बाहर के सारे रव को नीरव कर दो, भगवान् की सहायता के लिए अभीप्सा करो । जब वह आये तो उसकी ओर पूण रूप से खुलो और उसकी क्रिया के आगे समर्पण करो । यह प्रभावकारी रूप से तुम्हारा रूपान्तर कर देगी ।

 

*

 

    भागवत प्रेम में होती है रूपान्तर की परम शक्ति

 

*

 

    रूपान्तर की शक्ति भागवत प्रेम में होती है । उसके अन्दर यह शक्ति इसलिए होती है क्योंकि उसने अपने-आपको जगत् के रूपान्तर के लिए

९५


अर्पित कर दिया है और हर जगह अभिव्यक्त हुआ है । उसने अपने-आपको केवल मनुष्य में ही नहीं बल्कि द्रव्य के प्रत्येक अणु-परमाणु में उंडेल दिया है ताकि जगत् को उसके मौलिक 'सत्य' में वापिस ले आये । जिस क्षण तुम उसकी ओर खुलते हो, तुम्हें उसकी रूपान्तर की शक्ति भी प्राप्त होती है । लेकिन तुम उसे मात्रा के हिसाब से नहीं नाप सकते, जो चीज अनिवार्य है वह है सच्चा सम्पर्क । क्योंकि तुम देखोगे कि उसके साथ सच्चा सम्पर्क तुम्हारी सारी सत्ता को एकदम पूरी तरह भर देने के लिए काफी है ।

 

*

 

    और जब परम प्रेम की अभिव्यक्ति का दिन आयेगा, परम प्रेम के पारदर्शक, सघन अवतरण का दिन, तो वस्तुत: वही रूपान्तर का क्षण होगा । क्योंकि कोई चीज उसका प्रतिरोध न कर सकेगी ।

 

रूपान्तर और सत्ता के भाग

 

    क्या रूपान्तर बहुत उच्च स्तर की अभीप्सा, समर्पण और ग्रहणशीलता की मांग नहीं करता ?

 

   रूपान्तर सम्पूर्ण और समग्र समर्पण की मांग करता है । लेकिन क्या सभी सच्चे निष्कपट साधकों की यही अभीप्सा नहीं होती ?

 

   समग्र समर्पण का अर्थ है सत्ता की सभी अवस्थाओं में, जड़तम भौतिक से लेकर सूक्ष्मतम तक, सीधी खड़ी रेखा में समर्पण ।

 

    सम्पूर्ण समर्पण का अर्थ है क्षैतिज रूप में सभी विभिन्न और बहुत बार परस्पर विरोधी भागों का समर्पण, जिनसे सत्ता का बाहरी, भौतिक, प्राणिक और मानसिक भाग बनता है ।

 

*

 

    चैत्य के चारों ओर व्यवस्थित सत्ता : रूपान्तर का पहला चरण ।

*

९६


    मानसिक उद्‌घाटन : रूपान्तर की ओर मन का पहला चरण ।

 

*

 

    मानसिक प्रार्थना : रूपान्तर की अभीप्सा करने वाले मन के अन्दर सहज ।

 

*

 

    समझने की प्यास : रूपान्तर के लिए बहुत उपयोगी ।

 

*

 

    भौतिक मन में ईमानदारी : रूपान्तर के लिए अनिवार्य प्राथमिक अवस्था ।

 

*

 

    प्राण का सम्पूर्ण समर्पण : रूपान्तर के मार्ग में एक महत्त्वपूर्ण स्थिति ।

 

*

 

    भावुकतापूर्ण कामनाओं का त्याग : रूपान्तर के लिए अनिवार्य ।

 

*

 

    केवल मन और प्राण ही नहीं, शरीर को भी अपने सभी कोषाणुओं में भागवत रूपान्तर के लिए अभीप्सा करनी चाहिये ।

 

*

 

    भौतिक नमनीयता : रूपान्तर के लिए आवश्यक अवस्थाओं में से एक ।

 

*

 

    भौतिक अपने-आपको निष्कपट रूप से भगवान् के अर्पित करे तो वह रूपान्तरित हो जायेगा । यह अपने-आपको अहं से मुक्त करने के संकल्प का प्रमाण है ।

*

९७


    भौतिक प्रकृति में भगवान् के प्रति नम्रता : रूपान्तर के लिए आवश्यक पहली वृत्ति

 

*

 

    भौतिक गतिविधियों में चैत्य-प्रकाश : भौतिक के रूपान्तर के लिए पहला चरण ।

 

*

 

    जड़- भौतिक गतिविधियों में चैत्य का प्रकाश : रूपान्तर के लिए अनिवार्य स्थिति ।

 

*

 

    जड़-भौतिक में चैत्य प्रबोध : आध्यात्मिक जीवन के प्रति खुला जड़- भौतिक ।

 

*

 

    अतिमानसिक निदेशन तले जड़-भौतिक : उसके रूपान्तर के लिए आवश्यक अवस्था ।

 

*

 

    अवचेतना में अतिमानसिक प्रकाश : रूपान्तर के लिए अनिवार्य शर्त ।

 

*

 

    अवचेतना में अतिमानसिक प्रभाव : अपने विनीत रंग-रूप में यह रूपान्तर के लिए महान् शक्ति है ।

 

*

 

    रूपान्तर वह परिवर्तन है जिसके द्वारा सत्ता के सभी तत्त्व और सभी गतिविधियां अतिमानसिक सत्य को अभिव्यक्त करने के लिए तैयार हो जाते हैं ।

९८